भाषा

 

 हिन्दी व्याकरण

हिंदी है देश की राष्ट्रभाषा और हिंदी व्याकरण हिंदी भाषा के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

हिंदी भाषा को शुद्ध रूप में लिखने और बोलने संबंधी नियमों को जाने के लिए हिंदी व्याकरण अच्छे तरीके से समझना बहुत जरूरी होता है और यह Website आपको हिंदी व्याकरण को समझाने में पूरी तरह से मदद करेगी। यहां हिंदी व्याकरण से संबंधित सभी टॉपिक को छोटे-छोटे भागों में वर्गीकृत करके उदाहरण सहित समझाया गया है।

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Bhasha(Language)(भाषा)



भाषा(Language)की परिभाषा -

भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है।
दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है।
सरल शब्दों में- सामान्यतः भाषा मनुष्य की सार्थक व्यक्त वाणी को कहते है।

डॉ शयामसुन्दरदास के अनुसार - मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुअों के विषय अपनी इच्छा और मति का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतो का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।

डॉ बाबुराम सक्सेना के अनुसार- जिन ध्वनि-चिंहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-बिनिमय करता है उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते है-
(1) भाषा में ध्वनि-संकेतों का परम्परागत और रूढ़ प्रयोग होता है।
(2) भाषा के सार्थक ध्वनि-संकेतों से मन की बातों या विचारों का विनिमय होता है।
(3) भाषा के ध्वनि-संकेत किसी समाज या वर्ग के आन्तरिक और ब्राह्य कार्यों के संचालन या विचार-विनिमय में सहायक होते हैं।
(4) हर वर्ग या समाज के ध्वनि-संकेत अपने होते हैं, दूसरों से भित्र होते हैं।

बच्चों, आदिमानव अपने मन के भाव एक-दूसरे को समझाने व समझने के लिए संकेतों का सहारा लेते थे, परंतु संकेतों में पूरी बात समझाना या समझ पाना बहुत कठिन था। आपने अपने मित्रों के साथ संकेतों में बात समझाने के खेल (dumb show) खेले होंगे। उस समय आपको अपनी बात समझाने में बहुत कठिनाई हुई होगी। ऐसा ही आदिमानव के साथ होता था। इस असुविधा को दूर करने के लिए उसने अपने मुख से निकली ध्वनियों को मिलाकर शब्द बनाने आरंभ किए और शब्दों के मेल से बनी- भाषा।

भाषा शब्द संस्कृत के भाष धातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना। कक्षा में अध्यापक अपनी बात बोलकर समझाते हैं और छात्र सुनकर उनकी बात समझते हैं। बच्चा माता-पिता से बोलकर अपने मन के भाव प्रकट करता है और वे उसकी बात सुनकर समझते हैं। इसी प्रकार, छात्र भी अध्यापक द्वारा समझाई गई बात को लिखकर प्रकट करते हैं और अध्यापक उसे पढ़कर मूल्यांकन करते हैं। सभी प्राणियों द्वारा मन के भावों का आदान-प्रदान करने के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। पशु-पक्षियों की बोलियों को भाषा नहीं कहा जाता।

इसके द्वारा मनुष्य के भावो, विचारो और भावनाओ को व्यक्त किया जाता है। वैसे भी भाषा की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। फिर भी भाषावैज्ञानिकों ने इसकी अनेक परिभाषा दी है। किन्तु ये परिभाषा पूर्ण नही है। हर में कुछ न कुछ त्रुटि पायी जाती है।

आचार्य देवनार्थ शर्मा ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार बनायी है। उच्चरित ध्वनि संकेतो की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अथवा जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय या सहयोग करते है उस यादृच्छिक, रूढ़ ध्वनि संकेत की प्रणाली को भाषा कहते है।

यहाँ तीन बातें विचारणीय है- (1) भाषा ध्वनि संकेत है; (2) वह यादृच्छिक है; (3) वह रूढ़ है।

(1) सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। यह संकेत स्पष्ट होना चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है; किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है। रेलगाड़ी का गार्ड हरी झण्डी दिखाकर यह भाव व्यक्त करता है कि गाड़ी अब खुलनेवाली है; किन्तु भाषा में इस प्रकार के संकेत का महत्त्व नहीं है। सभी संकेतों को सभी लोग ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते और न इनसे विचार ही सही-सही व्यक्त हो पाते हैं। सारांश यह है कि भाषा को सार्थक और स्पष्ट होना चाहिए।

(2) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यहाँ शब्द और अर्थ में कोई तर्क-संगत सम्बन्ध नहीं रहता। बिल्ली, कौआ, घोड़ा, आदि को क्यों पुकारा जाता है, यह बताना कठिन है। इनकी ध्वनियों को समाज ने स्वीकार कर लिया है। इसके पीछे कोई तर्क नहीं है।

(3) भाषा के ध्वनि-संकेत रूढ़ होते हैं। परम्परा या युगों से इनके प्रयोग होते आये हैं। औरत, बालक, वृक्ष आदि शब्दों का प्रयोग लोग अनन्तकाल से करते आ रहे है। बच्चे, जवान, बूढ़े- सभी इनका प्रयोग करते है। क्यों करते है, इसका कोई कारण नहीं है। ये प्रयोग तर्कहीन हैं।

भाषा व्यक्त करने के चाहे जो भी तरीके हों, हम किसी-न-किसी शब्द, शब्द-समूहों या भावों की ओर ही इशारा करते हैं जिनसे सामनेवाले अवगत होता है। इसलिए भाषा में हम केवल सार्थक शब्दों की बातें करते हैं। इन शब्दों या शब्द-समूहों (वाक्यों) द्वारा हम अपनी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, प्रसन्नता या खिन्नता, प्रेम या घृणा, क्रोध अथवा संतोष प्रकट करते हैं। हम शब्दों का प्रयोग कर बड़े-बड़े काम कर जाते हैं या मूर्खतापूर्ण प्रयोग कर बने-बनाए काम को बिगाड़ बैठते हैं।

हम इसके प्रयोग कर किसी क्रोधी के क्रोध का शमन कर जाते हैं तो किसी शांत-गंभीर व्यक्ति को उत्तेजित कर बैठते हैं। किसी को प्रोत्साहित तो किसी को हतोत्साहित भी हम शब्द-प्रयोग से ही करते हैं। कहने का यह तात्पर्य है कि हम भाषा के द्वारा बहुत सारे कार्यो को करते हैं। हमारी सफलता या असफलता (अभिव्यक्ति के अर्थ में) हमारी भाषायी क्षमता पर निर्भर करती है।

भाषा से हमारी योग्यता-अयोग्यता सिद्ध होती है। जहाँ अच्छी और सुललित भाषा हमें सम्मान दिलाती है वहीं अशुद्ध और फूहड़ भाषा हमें अपमानित कर जाती है (समाज में) । स्पष्ट है कि भाषा ही मनुष्य की वास्तविक योग्यता, विद्वत्ता और बुद्धिमता, उसके अनुशीलन, मनन और विचारों की गंभीरता उसके गूढ़ उद्देश्य तथा उसके स्वभाव, सामाजिक स्थिति का परिचय देती है।

कोई अपमानित होना नहीं चाहता। अतएव, हमें सदैव सुन्दर और प्रभावकारिणी भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारा प्रयत्न निरंतर जारी रहे। भाषा में पैठ एवं अच्छी जानकारी के लिए हमें निम्नलिखित बातों पर हमेशा ध्यान देना चाहिए-

(i) हम छोटी-छोटी भूलों पर सूक्ष्म दृष्टि रखें और उसे दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहें। चाहे जहाँ कहीं भी हों अपनी भाषायी सीमा का विस्तार करें। दूसरों की भाषा पर भी ध्यान दें।

(ii) खासकर बच्चों की भाषा पर विशेष ध्यान दें। यदि हम उनकी भाषा को शुरू से ही व्यवस्थित रूप देने में सफल होते हैं तो निश्चित रूप से उसका (भाषा का) वातावरण तैयार होगा।

(iii) सदा अच्छी व ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों का अध्ययन करें। उन पुस्तकों में लिखे नये शब्दों के अर्थों एवं प्रयोगों को सीखें। लिखने एवं बोलने की शैली सीखें।

(iv) वाक्य-प्रयोग करते समय इस छोटी-सी बात का हमेशा ध्यान रखें-
हर संज्ञा के लिए एक उपयुक्त विशेषण एवं प्रत्येक क्रिया के लिए सटीक क्रिया-विशेषण का प्रयोग हो।

(v) विराम-चिह्नों का प्रयोग उपयुक्त जगहों पर हो। लिखते और बोलते समय भी इस बात का ध्यान रहे।

(vi) मुहावरे, लोकोक्तियों, बिम्बों आदि का प्रयोग करना सीखें और आस-पास के लोगों को सिखाएँ।

(vii) जिस भाषा में हम अधिक जानकारी बढ़ाना चाहते हैं, हमें उसके व्यावहारिक व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक है।

हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भाषा परिवर्तनशील होती है। किसी भाषा में नित नये शब्दों, वाक्यों का आगमन होते रहता है और पुराने शब्द टूटते, मिटते रहते हैं। किसी शब्द या वाक्य को पकड़े रहना कि यह ऐसा ही प्रयोग होता आया है और आगे भी ऐसा ही रहेगा या यही रहेगा- कहना भूल है। आज विश्व में कुल 2,796 भाषाएँ और 400 लिपियाँ मान्यता प्राप्त हैं। एक ही साथ इतनी भाषाएँ और लिपियाँ नहीं आई। इनका जन्म विकास के क्रम में हुआ, टूटने-फूटने से हुआ।

हम जानते हैं कि हर भाषा का अपना प्रभाव हुआ करता है। हर आदमी की अपने-अपने हिसाब से भाषा पर पकड़ होती है और उसी के अनुसार वह एक-दूसरे पर प्रभाव डालता है। जब पारस्परिक सम्पर्क के कारण एक जाति की भाषा का दूसरी जाति की भाषा पर असर पड़ता है, तब निश्चित रूप से शब्दों का आदान-प्रदान भी होता है। यही कारण है कि कोई भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह पाती और उससे अनेक शाखाएँ विभिन्न परिस्थितियों के कारण फूटती रहती हैं तथा अपना विस्तारकर अलग-अलग समृद्व भाषा का रूप ले लेती हैं। इस बात को हम एक सरल उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझने का प्रयास करें-

कल्पना कीजिए कि किसी कारण से अलग-अलग चार भाषाओं के लोग कुछ दिन तक एक साथ रहे। वे अपनी-अपनी भाषाओं में एक-दूसरे से बातें करते-सुनते रहे। चारों ने एक दूसरे की भाषा के शब्द ग्रहण किए और अपने-अपने साथ लेते गए। अब प्रश्न उठता है कि चारों में से किसी की भाषा अपने मूल रूप में रह पायी ? इसी तरह यदि दो-चार पीढ़ियों तक उन चारों के परिवारों का एक-साथ उठना-बैठना हो तो निश्चित रूप से विचार-विनिमय के लिए एक अलग ही किस्म की भाषा जन्म ले लेगी, जिसमें चारों भाषाओं के शब्दों और वाक्यों का प्रयोग होगा। उस नई भाषा में उक्त चारों भाषाओं के सरल और सहज उच्चरित होनेवाले शब्द ही प्रयुक्त होंगे वे भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार और सरलतम रूपों में; क्योंकि जब कोई एक भाषाभाषी दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करता है तो वह सरल से सरलतम शब्दों का चयन करके भी उसे अपने अनुसार सहज बना लेता है। निम्नलिखित उदाहरणों से इसका अंदाजा लगाएँ-

मूल शब्द : विकास के क्रम में बने सरल से सरलतम रूप (विभिन्न भाषाओं में)
बाह्य : बाह > बाहर
मध्यम : मुझ
सप्तत्रिंशत : सैंतीस
मनस्कामना : मनोकामना
दक्षिण : दखिन > दाहिन > दहिन > दाहिना
परीक्षा : परिखा > परख
अग्नि : अग्नि > आग
कुमार (संस्कृत) : कुँवर
जायगाह (फारसी) : जगह
लीचू (चीनी) : लीची
ओपियम (यूनानी) : अफीम
लैन्टर्न (अंग्रेजी) : लालटेन
बेयरिंग (अंग्रेजी) : बैरंग
कैंडल (अंग्रेजी) : कंदिल > कंडिल

किसी भाषा के दो मुख्य आधार हुआ करते हैं-
(i) मानसिक आधार (Psychical Aspect) और
(ii) भौतिक आधार (Physical Aspect)

मानसिक आधार से आशय है, वे विचार या भाव, जिनकी अभिव्यक्ति के लिए वक्ता भाषा का प्रयोग करता है और भौतिक आधार के जरिए श्रोता ग्रहण करता है। इसके सहारे भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ (वर्ण, अनुतान, स्वराघात आदि) और इनसे निकलनेवाले विचारों या भावों को ग्रहण किया जाता है। जैसे- 'फूल' शब्द का प्रयोग करनेवाला भी इसके अर्थ से अवगत होगा और जिसके सामने प्रयोग किया जा रहा (सुननेवाला) वह भी। यानी भौतिक आधार अभिव्यक्ति का साधन है और मानसिक आधार साध्य। दोनों के मिलने से ही भाषा का निर्माण होता है। इन्हें ही 'ब्राह्य भाषा' (Outer Speech) और आन्तरिक भाषा (Inner Speech) कहा जाता है।

भाषा समाज-द्वारा अर्जित सम्पत्ति है और उसका अर्जन मानव अनुकरण के सहारे समाज से करता है। यह अनुकरण यदि ठीक-ठाक हो तो मानव किसी शब्द को ठीक उसी प्रकार उच्चरित करेगा, परन्तु ऐसा होता नहीं है। वाक्य, अर्थ आदि का अनुकरण मानसिक रूप में समझकर किया जाता हैं। अनुकरण करने में प्रायः अनुकर्त्ता कुछ भाषिक तथ्यों को छोड़ देता है और कुछ को जोड़ लेता है। जब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी, भाषा का अनुकरण कर रही होती है, तब ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य, अर्थ- भाषा के पाँचों क्षेत्रों में इसे छोड़ने और जोड़ने के कारण परिवर्तन बड़ी तेजी से होता है। इस अनुकरण की अपूर्णनता के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं-

शारीरिक विभिन्नता, एकाग्रता की कमी, शैक्षिक स्तरों में अंतर का होना, उच्चारण में कठिनाई होना, भौतिक वातावरण, सांस्कृतिक प्रभाव, सामाजिक प्रभाव आदि।

उपर्युक्त प्रभावों के कारण अनुकरणात्मक विविधता के कुछ उदाहरण देखें-

तृष्णा > तिसना/टिसनाशिक्षा > सिच्छा
षड्यंत्र > खडयंत्ररिपोर्ट > रपट
राजेन्द्र > रजिन्दर/राजेन्दरट्रैजेडी > त्रासदी
अंदाज > अंजादलखनऊ > नखलऊ
परीक्षा > परिच्छाक्षत्रिय > छत्री
स्टेशन > इस्टेशन/टिशनस्कूल > ईसकूल
मास्टर > मसटर/महटरप्राण > परान
मतलब > मतबल

प्रत्येक देश की अपनी एक भाषा होती है। हमारी राष्टभाषा हिंदी है। संसार में अनेक भाषाए है। जैसे- हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बँगला, गुजराती, उर्दू, तेलगु, कन्नड़, चीनी, जमर्न आदि।

हिंदी के कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा के निम्नलिखित लक्षण दिए है।

अनुकरण की यह प्रवृत्ति या भाषा का यह रूप भूगोल पर आधारित है। एक भाषा-क्षेत्र में कई बोलियाँ हुआ करती हैं और इसी तरह एक बोली-क्षेत्र में कई उपबोलियाँ। बोली के लिए विभाषा, उपभाषा अथवा प्रांतीय भाषा का भी प्रयोग किया जाता है। बोली का क्षेत्र छोटा और भाषा का बड़ा होता है। यों तो प्रकृति की दृष्टि से भाषा और बोली में अन्तर कर पाना मुश्किल है फिर भी यहाँ कुछ सामान्य अन्तर दिए जा रहे हैं-

''बोली किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते हैं जो ध्वनि, रूप, वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित तथा अन्य क्षेत्रीय रूपों से भिन्न होता है; किन्तु इतना भिन्न नहीं कि अन्य रूपों के बोलनेवाले उसे समझ न सकें, साथ ही जिसके अपने क्षेत्र में कहीं भी बोलनेवालों के उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरों आदि में कोई बहुत स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण भिन्नता नहीं होती।''

भाषा का क्षेत्र व्यापक हुआ करता है। इसे सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक, व्यापारिक आदि मान्यताएँ प्राप्त होती हैं; जबकि बोली को मात्र सामाजिक मान्यता ही मिल पाती है। भाषा का अपना गठित व्याकरण हुआ करता है; परन्तु बोली का कोई व्याकरण नहीं होता। हाँ, बोली ही भाषा को नये-नये बिम्ब, प्रतीकात्मक शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि समर्पित करती है। जब कोई बोली विकास करते-करते उक्त सभी मान्यताएँ प्राप्त कर लेती है, तब वह बोली न रहकर भाषा का रूप धारण कर लेती है। जैसे- खड़ी बोली हिन्दी जो पहले (द्विवेदी-युग से पूर्व) मात्र प्रांतीय भाषा या बोली मात्र थी वह आज भाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है।

एक बोली जब मानक भाषा बनती है और प्रतिनिधि हो जाती है तो आस-पास की बोलियों पर उसका भारी प्रभाव पड़ता है। आज की खड़ी बोली ने ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथली, मगही आदि सभी को प्रभावित किया है। हाँ, यह भी देखा जाता है कि कभी-कभी मानक भाषा कुछ बोलियों को बिल्कुल समाप्त भी कर देती है। एक बात और है, मानक भाषा पर स्थानीय बोलियों का प्रभाव ही देखा जाता है।

एक उदाहरण द्वारा इसे आसानी से समझा जा सकता है-

बिहार राज्य के बेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर आदि जिलों में प्रायः ऐसा बोला जाता है-
हम कैह देंगे। हम नै करेंगे आदि।
भोजपुर क्षेत्र में : हमें लौक रहा है (दिखाई पड़ रहा है)। हम काम किये (हमने का) किया)
पंजाब प्रान्त का असर : हमने जाना है (हमको जाना है)
दिल्ली-आगरा क्षेत्र में : वह कहवे था/ मैं जाऊँ। मेरे को जाना है।
कानपुर आदि क्षेत्रों में : वह गया हैगा।

एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ हो सकती हैं, जबकि एक बोली में कई भाषाएँ नहीं होतीं। बोली बोलनेवाले भी अपने क्षेत्र के लोगों से तो बोली में बातें करते हैं; किन्तु बाहरी लोगों से भाषा का ही प्रयोग करते हैं।

ग्रियर्सन के अनुसार भारत में 6 भाषा-परिवार, 179 भाषाएँ और 544 बोलियाँ हैं-
(क) भारोपीय परिवार : उत्तरी भारत में बोली जानेवाली भाषाएँ।
(ख) द्रविड़ परिवार : तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम।
(ग) आस्ट्रिक परिवार : संताली, मुंडारी, हो, सवेरा, खड़िया, कोर्क, भूमिज, गदवा, पलौंक, वा, खासी, मोनख्मे, निकोबारी।
(घ) तिब्बती-चीनी : लुशेइ, मेइथेइ, मारो, मिश्मी, अबोर-मिरी, अक।
(ड़) अवर्गीकृत : बुरूशास्की, अंडमानी
(च) करेन तथा मन : बर्मा की भाषा (जो अब स्वतंत्र है)

भाषा के प्रकार

भाषा के तीन रूप होते है-
(1)मौखिक भाषा
(2)लिखित भाषा
(3)सांकेतिक भाषा।

(1)मौखिक भाषा :-विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में वक्ताओं ने बोलकर अपने विचार प्रकट किए तथा श्रोताओं ने सुनकर उनका आनंद उठाया। यह भाषा का मौखिक रूप है। इसमें वक्ता बोलकर अपनी बात कहता है व श्रोता सुनकर उसकी बात समझता है।

इस प्रकार, भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति बोलकर विचार प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति सुनकर उसे समझता है, मौखिक भाषा कहलाती है।

दूसरे शब्दों में- जिस ध्वनि का उच्चारण करके या बोलकर हम अपनी बात दुसरो को समझाते है, उसे मौखिक भाषा कहते है।

उदाहरण: टेलीफ़ोन, दूरदर्शन, भाषण, वार्तालाप, नाटक, रेडियो आदि।

मौखिक या उच्चरित भाषा, भाषा का बोल-चाल का रूप है। उच्चरित भाषा का इतिहास तो मनुष्य के जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य ने जब से इस धरती पर जन्म लिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा। इसलिए यह कहा जाता है कि भाषा मूलतः मौखिक है।

यह भाषा का प्राचीनतम रूप है। मनुष्य ने पहले बोलना सीखा। इस रूप का प्रयोग व्यापक स्तर पर होता है।

मौखिक भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) यह भाषा का अस्थायी रूप है।
(2) उच्चरित होने के साथ ही यह समाप्त हो जाती है।
(3) वक्ता और श्रोता एक-दूसरे के आमने-सामने हों प्रायः तभी मौखिक भाषा का प्रयोग किया जा सकता है।
(4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'ध्वनि' है। विभिन्न ध्वनियों के संयोग से शब्द बनते हैं जिनका प्रयोग वाक्य में तथा विभिन्न वाक्यों का प्रयोग वार्तालाप में किया जाता हैं।
(5) यह भाषा का मूल या प्रधान रूप हैं।

(2)लिखित भाषा :-मुकेश छात्रावास में रहता है। उसने पत्र लिखकर अपने माता-पिता को अपनी कुशलता व आवश्यकताओं की जानकारी दी। माता-पिता ने पत्र पढ़कर जानकारी प्राप्त की। यह भाषा का लिखित रूप है। इसमें एक व्यक्ति लिखकर विचार या भाव प्रकट करता है, दूसरा पढ़कर उसे समझता है।

इस प्रकार भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति अपने विचार या मन के भाव लिखकर प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति पढ़कर उसकी बात समझता है, लिखित भाषा कहलाती है।

दूसरे शब्दों में- जिन अक्षरों या चिन्हों की सहायता से हम अपने मन के विचारो को लिखकर प्रकट करते है, उसे लिखित भाषा कहते है।

उदाहरण:पत्र, लेख, पत्रिका, समाचार-पत्र, कहानी, जीवनी, संस्मरण, तार आदि।

उच्चरित भाषा की तुलना में लिखित भाषा का रूप बाद का है। मनुष्य को जब यह अनुभव हुआ होगा कि वह अपने मन की बात दूर बैठे व्यक्तियों तक या आगे आने वाली पीढ़ी तक भी पहुँचा दे तो उसे लिखित भाषा की आवश्यकता हुई होगी। अतः मौखिक भाषा को स्थायित्व प्रदान करने हेतु उच्चरितध्वनि प्रतीकों के लिए 'लिखित-चिह्नों' का विकास हुआ होगा।

इस तरह विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों ने अपनी-अपनी भाषिक ध्वनियों के लिए तरह-तरह की आकृति वाले विभिन्न लिखित-चिह्नों का निर्माण किया और इन्हीं लिखित-चिह्नों को 'वर्ण' (letter) कहा गया। अतः जहाँ मौखिक भाषा की आधारभूत इकाई ध्वनि (Phone) है तो वहीं लिखित भाषा की आधारभूत इकाई 'वर्ण' (letter) हैं।

लिखित भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) यह भाषा का स्थायी रूप है।
(2) इस रूप में हम अपने भावों और विचारों को अनंत काल के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।
(3) यह रूप यह अपेक्षा नहीं करता कि वक्ता और श्रोता आमने-सामने हों।
(4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'वर्ण' हैं जो उच्चरित ध्वनियों को अभिव्यक्त (represent) करते हैं।
(5) यह भाषा का गौण रूप है।

इस तरह यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा का मौखिक रूप ही प्रधान या मूल रूप है। किसी व्यक्ति को यदि लिखना-पढ़ना (लिखित भाषा रूप) नहीं आता तो भी हम यह नहीं कह सकते कि उसे वह भाषा नहीं आती। किसी व्यक्ति को कोई भाषा आती है, इसका अर्थ है- वह उसे सुनकर समझ लेता है तथा बोलकर अपनी बात संप्रेषित कर लेता है।

(3)सांकेतिक भाषा :- जिन संकेतो के द्वारा बच्चे या गूँगे अपनी बात दूसरों को समझाते है, वे सब सांकेतिक भाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- जब संकेतों (इशारों) द्वारा बात समझाई और समझी जाती है, तब वह सांकेतिक भाषा कहलाती है।

जैसे- चौराहे पर खड़ा यातायात नियंत्रित करता सिपाही, मूक-बधिर व्यक्तियों का वार्तालाप आदि।
इसका अध्ययन व्याकरण में नहीं किया जाता।

भाषा का उद्देश्य

भाषा का उद्देश्य है- संप्रेषण या विचारों का आदान-प्रदान।

भाषा के उपयोग

भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सर्वाधिक उपयोगी साधन है। परस्पर बातचीत लेकर मानव-समाज की सभी गतिविधियों में भाषा की आवश्यकता पड़ती है। संकेतों से कही गई बात में भ्रांति की संभावना रहती है, किन्तु भाषा के द्वारा हम अपनी बात स्पष्ट तथा निर्भ्रांत रूप में दूसरों तक पहुँचा सकते हैं।

भाषा का लिखित रूप भी कम उपयोगी नहीं। पत्र, पुस्तक, समाचार-पत्र आदि का प्रयोग हम दैनिक जीवन में करते हैं। लिखित रूप में होने से पुस्तकें, दस्तावेज आदि लम्बे समय तक सुरक्षित रह सकते हैं। रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ तथा ऐतिहासिक शिलालेख आज तक इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वे भाषा के लिखित रूप में है।

भाषा की प्रकृति

भाषा सागर की तरह सदा चलती-बहती रहती है। भाषा के अपने गुण या स्वभाव को भाषा की प्रकृति कहते हैं। हर भाषा की अपनी प्रकृति, आंतरिक गुण-अवगुण होते है। भाषा एक सामाजिक शक्ति है, जो मनुष्य को प्राप्त होती है। मनुष्य उसे अपने पूवर्जो से सीखता है और उसका विकास करता है।

यह परम्परागत और अर्जित दोनों है। जीवन्त भाषा 'बहता नीर' की तरह सदा प्रवाहित होती रहती है। भाषा के दो रूप है- कथित और लिखित। हम इसका प्रयोग कथन के द्वारा, अर्थात बोलकर और लेखन के द्वारा (लिखकर) करते हैं। देश और काल के अनुसार भाषा अनेक रूपों में बँटी है। यही कारण है कि संसार में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। भाषा वाक्यों से बनती है, वाक्य शब्दों से और शब्द मूल ध्वनियों से बनते हैं। इस तरह वाक्य, शब्द और मूल ध्वनियाँ ही भाषा के अंग हैं। व्याकरण में इन्हीं के अंग-प्रत्यंगों का अध्ययन-विवेचन होता है। अतएव, व्याकरण भाषा पर आश्रित है।


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