दहेज ! कितना भयानक है यह शब्द? कुछ शब्द कभी सुनने की दृष्टि से भयानक होते हैं, कभी अर्थ की दृष्टि से सम्भवतः यहाँ दूसरी स्थिति है। दहेज को उस परिकल्पना ने भयानक बना दिया है जो उसके साथ सम्बद्ध है। शब्दों पर समय के प्रभाव भी पड़ते हैं। हो सकता है अतीत में 'दहेज' नए रिश्ते के साथ हमदर्दी एवं सहयोग का एक जरीआ मात्र हो और उसकी चर्चा से भाईचारगी और मुहब्बत के जज्बात उभरते हों, या कम से कम वह इतना भयानक न रहा हो जितना आज है। अब इसने बहरहाल एक डरावनी सूरत अपना ली है ।
दौलत की हवस इतनी बढ़ गई है कि लड़की की शक्ल-सूरत,तालीम-तर्बियत और दीन - अख़लाक़ सब कुछ इसके मुक़ाबले में पीछे रहगए हैं। सबसे पहली चीज़ जो देखी जाती है वह यह है कि लड़कीकितनी दौलत अपने साथ ला सकती है । हुस्न का ही नहीं, दीन औरअख़लाक़ (धर्म और नैतिकता) का भी इतना अपमान शायद ही दुनियाने कभी देखा हो । दौलत ने सभी उच्च मूल्यों को खुली पराजय दे दी।
दहेज समाज में आदमी की हैसियत ही का नहीं, इज़्ज़त औरशराफ़त का भी मापदण्ड बन गया है । जो व्यक्ति दहेज के नाम परजितनी ज़्यादा रक़म ख़र्च कर सकता है, उसकी लड़की के लिए उतनाही 'अच्छा' और 'योग्य' वर मिल सकता है। जो व्यक्ति दहेज न दे पाए,वह कम हैसियतवाला और हीन एवं तुच्छ है । वह अपनी लड़की के लिएकिसी उचित रिश्ते की अपेक्षा नहीं कर सकता। यदि किसी ने अपनीएक लड़की के साथ यह ज़्यादती की कि बिना दहेज के उसे विदा करदिया तो उसकी अन्य लड़कियों का अल्लाह ही हाफ़िज़ ! उसे आसानी सेरिश्ते मिल नहीं सकते। ऐसे कंगाल या कंजूस के घर आना कौन पसन्द करेगा !
इसका नतीजा यह है कि बहुत-सी लड़कियाँ लम्बी उम्र तक मात्र इसलिए बिन-ब्याही बैठी रहती हैं कि दुर्भाग्यवश वे ऐसे माँ-बाप के घर पैदा हो गईं जो उनके लिए दहेज जुटाने में सक्षम नहीं हैं। इनमें कितनी ही मज़लूम और बेज़बान ज़िन्दगी-भर कँवारी रह जाती हैं। कुछ बेचारी तो परिस्थितियों को देखते हुए स्वयं ही शादी से इनकार कर देती हैं ताकि उनके माता-पिता उनकी शादी की चिन्ता से मुक्त हो जाएँ और वे अपनी उमंगों और तमन्नाओं को दबाकर यूँ ही ज़िन्दगी इसके अतिरिक्त उपमहाद्वीप में संयुक्त परिवार का प्रचलन है। जब किसी परिवार में लड़कों की शादियाँ होती चली जाती हैं और लड़कियाँ कुँवारी रह जाती हैं तो परिवार के अन्दर बड़ी मनोवैज्ञानिक पेचीदगियाँ पैदा हो जाती हैं और पारिवारिक ज़िन्दगी का सुकून बिखर जाता है। हक़ीक़त यह है कि इन अविवाहित लड़कियों का वुजूद इस ज़ालिम समाज के ख़िलाफ़ फ़रियाद है जो हर क्षण की जा रही है। लेकिन कौन है जो इन बेबसों की फ़रियाद सुने ?
सबसे बड़ी समस्या तो उस लड़की की है जो दहेज के बिना अपने पति के घर चली जाए। उसमें हज़ार ख़ूबियाँ सही, उसकी यह ग़लती माफ़ नहीं हो सकती कि वह ख़ाली हाथ अपने मायके से आई है। उसे फिटकारनेवाला केवल उसका पति ही नहीं होता, पति का पूरा परिवार उसका हिसाब-किताब लेनेवाला बन जाता है। उसे अपने इस जुर्म का एक-एक व्यक्ति को हिसाब देना पड़ता है । इसकी सामान्य सज़ा ताना, टिप्पणी, व्यंग्य, मार-पीट तो है ही, उसे घर से निकाला भी जा सकता है और पति से अलग भी किया जा सकता है। यही नहीं इस 'जुर्म' के लिए उसे अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है । दहेज के लिए हत्या की घटनाएँ इतनी अधिक हो रही हैं कि इन ख़बरों में कोई नयापन बाक़ी नहीं बचा है । अब ये घटनाएँ नियमित घटनाएँ बनकर रह गई हैं। यह सज़ा पति महोदय के हाथों दी भी जाती है, और यदि उसे कुछ हिचकिचाहट अथवा संकोच हो तो परिवार के अन्य सदस्य भी इस सेवा के लिए तैयार रहते हैं ।
दहेज की समस्याओं एवं कष्टों से छुटकारा पाने के लिए लड़कियाँस्वयं भी आत्महत्या की प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो रही हैं। इसके लिए कभी वे मिट्टी के तेल और पेट्रोल का सहारा लेती हैं, कभी किसी ऊँची इमारत से छलाँग लगाती हैं, तो कभी गले में फन्दा लगाकर छत से लटक जाती हैं और कभी ज़हर खाकर हमेशा की नींद सो जाती हैं। ख़ुदा बेहतर जानता है कि कितनी मासूम जानें इस दहेज रूपी दानव की भेंट चढ़ चुकी हैं और अभी कितनी की यही नियति होनेवाली है। इस दरिन्दगी से जंगल के पशु भी शायद शरमा रहे होंगे।
दहेज की इस भयानक तस्वीर को आज हर व्यक्ति अपनी खुली आँखों से देख रहा है, इसके बावुजूद समाज के अधिकतर लोगों ने इसे एक अनिवार्य सामाजिक बुराई के रूप में स्वीकार कर लिया है। उनके अनुसार वर्तमान हालात में लड़कों के लिए दहेज लेना और लड़कियों को दहेज देना, दोनों इतना ज़रूरी हो गया है कि इससे दामन बचाने की कोई सूरत नहीं है। इसकी दलील यह दी जाती है कि लड़कियों को बहरहाल दहेज देना ही पड़ता है। इसमें लड़के की माँगों की पूर्ति भी शामिल है, इसके बिना उनकी शादी नहीं हो सकती। माँ-बाप इसकी हिम्मत नहीं कर सकते कि उनकी लड़की बिन ब्याही घर बैठी रहे। जो व्यक्ति दहेज देता है वह दहेज लेने पर मजबूर भी है। उससे यह अपेक्षा करना ग़लत होगा कि वह तो अपनी लड़कियों को दहेज के साथ विदा करे और दूसरों की लड़कियाँ उसके घर ख़ाली हाथ आएँ। हो सकता है इस नुक़सान को कुछ लोग सहन कर लें, परन्तु हर व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता।
इस तर्क को सामने रखकर सोचिए, वह इनसान कितना अभागा होगा जिसकी केवल लड़कियाँ हों। वह तो नुक़सान पर नुक़सान उठाता रहेगा। और इसके विपरीत कितना भाग्यशाली है वह व्यक्ति जिसके केवल लड़के हों और जो दहेज की दौलत से मालामाल होता चला जाए।
फिर इस कुतर्क को मान लेने के बाद जो बात सामने आती है वह यह है कि किसी बुराई को हम मात्र इसलिए स्वीकार कर लें कि सारी दुनिया ऐसा कर रही है और इससे फ़ायदा उठा रही है, यह तो एक ग़लत धारणा है। इस प्रकार तो आदमी रिश्वत, घूस, बेईमानी, धोखा जैसी बुराइयों को भी वैध घोषित कर सकता है, कारण यह है कि ये नुस्खे आज की दुनिया में आम हैं और बड़े लाभदायक हैं। जो इन्हें इस्तेमाल नहीं करता वह निश्चित रूप से घाटे में रहता है।
इस प्रकार की ग़लत व्याख्याएँ दुनिया की हर बुराई को मज़बूती प्रदान करती हैं। इनसे इनसान की अन्तरात्मा में बुराइयों के खिलाफ घृणा की जो भावना रहती है, वह भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है, और फिर वह पूरी ढिठाई के साथ बुराई के कामों में लिप्त होता चला जाता है।
हक़ीक़त यह है कि दहेज के नाम पर जो ज़ुल्म ज्यादती हो रही है उसे दुनिया का कोई धर्म, कोई नैतिक दर्शन और कोई क़ानून जाइज़ करार नहीं दे सकता। आजकल हमारे देश के अख़बारों का एक ख़ास विषय यही दहेज है। इसके ख़िलाफ़ विभिन्न क्षेत्रों से आवाजें उठती रहती हैं। सरकार भी क़ानून के द्वारा इसपर पाबन्दी लगाना चाहती है, परन्तु किसी भी बुराई को दूर करने के लिए सरकार और समाज का दबाव काफ़ी नहीं है, बल्कि इसके लिए सोच और विचार में परिवर्तन लाने तथा अल्लाह और आख़िरत के डर की ज़रूरत है । इस्लाम यही फ़र्ज़ अंजाम देता है । वह सबसे पहले समाज के ग़लत बन्धनों को तोड़ता और ज़िन्दगी का साफ़-सुथरा और आसान तरीक़ा सिखाता है। इसके लिए उसने किसी भी मामले को पेचीदा नहीं बनाया है कि आदमी के लिए जीना दूभर हो जाए। अतः उसने दाम्पत्य जीवन की तमाम समस्याओं को भी बहुत आसानी से हल किया है। उसके नज़दीक निकाह सादगी एवं सहजता से होना चाहिए। उसे मुश्किल एवं असहज बनाना बहुत बड़ा ज़ुल्म है। इस सम्बन्ध में इस्लाम की कुछ सैद्धान्तिक शिक्षाओं का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-
(1) इस्लाम इस बात का घोर विरोध करता है कि किसी भी मामले में ज़ुल्म-ज्यादती का व्यवहार किया जाए। उसके अनुसार किसी की कमज़ोरी और मजबूरी से फ़ायदा उठाना और उसका शोषण करना सर्वथा अवैध है । दहेज के नाम पर लड़कीवालों का शोषण भी इसी के अन्तर्गत आता है । इस्लाम इसका किसी हाल में पक्षधर नहीं है।
(2) शादी लड़कीवालों से दौलत समेटने का ज़रीआ नहीं है, बल्दि यह कुछ महान उद्देश्यों के लिए होती है। वही शादी सफल है जिनसे उन उद्देश्यों की पूर्ति होती है। दौलत की हवस में उन उद्देश्यों को पीछे धकेल देना ग़लत एवं अनुचित है।
शादी से कुछ दिन या कुछ समय पहले लड़की या उसके अभिभावकों के सामने दहेज के नाम पर हाथ फैलाए और जब अपनी मुराद पूरी न हो तो फिर किसी दूसरी लड़की के दरवाज़े पर पहुँच जाए।
जिस व्यक्ति के समक्ष ये पवित्र शिक्षाएँ हों उसकी वह मानसिकता कभी नहीं हो सकती जो आज दहेज के लोभी नौजवानों में देखी जाती है। वह दहेज के नाम पर औरत और उसके परिवारवालों के शोषण की जगह उनसे हमदर्दी और मुहब्बत का रवैया अपनाएगा और पाशविक प्रवृत्ति की जगह अपने सद्व्यवहार से शराफ़त और इनसानियत (मानवीय गुणों) का सुबूत देगा ।
चाहिए। जब तक आदमी उन हितों और फ़ायदों का त्याग न करे जो किसी ग़लत माध्यम से उसे प्राप्त हो रहे हैं, उसका सुधार नहीं हो सकता ।
(2) शादी के अवसर पर वर और वधू को रिश्तेदारों और दोस्तों की ओर से तोहफ़े-उपहार दिए जा सकते हैं, लेकिन तोहफ़े आदान-प्रदान ‘अनुमति' तक ही सीमित हो, ‘अनिवार्यता' का साथ न धारण कर ले। अर्थात् तोहफ़ा न मिलने पर बुरा मानना या शिकवा-शिकायत करना सही नहीं है। तोहफ़ा अपनी ख़ुशी से आदमी देता है, वरना तोहफ़ा 'तावान' और 'जुर्माना' बन जाएगा।
यह है वह मध्य-मार्ग जो इस्लाम ने प्रस्तुत किया है। इसमें मुहब्बत और हमदर्दी है, सद्व्यवहार है, ज़ुल्म- ज़्यादती की मनाही है और साथ-साथ इनसान के जज़्बात, स्वभाव और ज़रूरतों की भरपूर गुंजाइश भी है। इसपर अमल हो तो दहेज के झगड़े ख़त्म ही नहीं होंगे, बल्कि शन्तिपूर्ण पारिवारिक जीवन भी मिलेगा।