आर्यभट्ट का जीवन

आर्यभट्ट का जीवन परिचय 




 आर्यभट्ट भारत के पहले महान गणितज्ञ तथा खगोल विज्ञानी थे। उनका जन्म आज से लगभग 1600 वर्ष पहले हुआ था। उस समय में भारत एक स्वतंत्र देश नहीं था। तब राजाओं का शासन हुआ करता था। 

आर्यभट्ट ने अपनी मेहनत से गणित और खगोल विज्ञान के कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। वे राजाओं के शासन के उथल-पुथल, युद्ध, व अनिश्चित शासन से प्रभावित नहीं हुए तथा अपने कार्य को जारी रखा। प्राचीन भारत में उनके जैसा महान वैज्ञानिक कोई नहीं हुआ था। 12 वीं शताब्दी में जन्मे भास्कराचार्य ने अपनी बुद्धिमता से आर्यभट्ट के समान खोज कार्य किए जिसकी वजह से उनका भी नाम महान वैज्ञानिकों में प्रसिद्ध हुआ।


 
आर्यभट्ट का जीवन  22 476 ईस्वी, पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना, भारत)
नाम आर्यभट्ट
रचनाएं 1.आर्यभटीय, 2.आर्य-सिद्धांती
खोज कार्य (i)शून्य, (ii)पाई का मान,(iii) ग्रहों की गति व ग्रहण,(iv) बीजगणित,(v) अनिश्चित समीकरणों के हल, (vi)अंकगणित
कार्य क्षेत्र गणित और खगोल विज्ञान
काल गुप्त काल
उम्र 74 वर्ष
मृत्यु 550 ईस्वी, प्राचीन भारत



आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी को पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना, बिहार) में हुआ था। उन्होंने आर्यभटीय किताब की रचना की थी जिसमें उन्होंने बताया है कि वे पाटलिपुत्र के निवासी हैं। तथा जब वह 23 साल के थे तब कलयुग के 3600 साल निकल चुके थे, जिससे पता चलता है कि वह समय 449 ईस्वी था जब उन्होंने उस किताब की रचना की थी। 23 साल पहले यानी 476 ईस्वी को उनका जन्म हुआ था।

ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट की शिक्षा पाटलिपुत्र में हुई थी तथा वे वहीं पर रहते थे। बाद में वे पाटलिपुत्र के एक शिक्षण संस्थान के मुख्य अध्यक्ष भी रहे थे। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि वह नालंदा विश्वविद्यालय के भी अध्यक्ष रहे थे।

उन्होंने तारेगना (वर्तमान पटना के पास) के एक मंदिर में वेधशाला भी स्थापित की जिससे वह ग्रहों व खगोलीय नक्षत्रों के बारे में जानकारी प्राप्त करते थे।

महान गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री आर्यभट्ट 
महान गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री आर्यभट्ट




आर्यभट्ट की रचनाएं 

आर्यभट्ट ने मुख्यतः गणित और खगोल विज्ञान में कार्य किया था। उनके कुछ खोज कार्य खत्म हो गए परंतु ज्यादातर खोज कार्य वर्तमान समय में भी जीवंत है। उनके ग्रंथ का नाम आर्यभटीय है जिसमें उनके सभी खोज कार्य उपलब्ध हैं।

आर्यभट्ट की मुख्य खोज कार्य/रचनाएँ 

i.  आर्यभटीय, भाग – गीतिकापद, गणितपद, कलाक्रियापद, गोला पद।
ii.  पाई का मान
iii. शून्य की उत्पत्ति
iv. अनिश्चित समीकरणों के हल
v.   बीजगणितीय सूत्रों का प्रतिपादन
vi.  त्रिकोणमिति व ज्या-कोज्या का प्रतिपादन
vii. ग्रहों की गति के सिद्धांत
viii. चंद्र ग्रहण व सूर्य ग्रहण का ज्ञान
ix.   नक्षत्र काल
x.    अंकगणित
xi.  आर्य सिद्धांत

आर्यभट्ट का ग्रंथ 

आर्यभट्ट ने आर्यभटीय  ग्रंथ की रचना की जिसमें उनके खोज कार्यों का वर्णन किया गया है। हालांकि, इस ग्रंथ का नाम उनके शिष्यों व अन्य लोगों ने आर्यभटीय रखा था। उन्होंने खुद ने इस ग्रंथ का नाम कहीं उल्लेखित नहीं किया है।

ग्रंथ को छंद/पद्य तरीके में लिखा गया है जो इसे पढ़ने में थोड़ा-सा कठिन बनाता है। इसमें कुल 108 छंद/पद्य हैं तथा 13 अन्य परिचयात्मक छंद है।

शुरुआती 13 छंदों में आर्यभट्ट ने अपने जीवन तथा ग्रंथ के बारे में बताया है। ग्रंथ में कुल चार अध्याय हैं जिन्हें पद कहा गया है। इन अध्यायों को हमने एक सारणी के माध्यम से समझाने की कोशिश की है जो आप नीचे देख सकते हैं –

अध्याय का नाम छंद की संख्या अध्याय सामग्री
गीतिकापद 13              समय के मापन की इकाइयां – कल्प, मनवंत्र, युग, ज्या की सारणी।
गणितपद     33 मापन, अंकगणित, ज्यामिति, शंकु छाया, साधारण, द्विघाती तथा अनिश्चित समीकरणों के हल।
कलाक्रियापद 25 ग्रहों की स्थिति, मापन व उनकी इकाइयां, क्षया तिथि, 7 दिनों का सप्ताह तथा सप्ताह के 7 दिन इत्यादि।
गोलापद 50 त्रिकोणमिति, गोला, पृथ्वी की आकृति, भूमध्य रेखा, दिन रात होने का कारण, ग्रहण व नक्षत्र।


आर्यभट्ट ने गति की सापेक्षता के बारे में बताया था कि एक चलती हुई नाव में बैठे हुए व्यक्ति को पेड़ पौधे व स्थिर चीजें चलती हुई दिखाई देती है, उसी तरह स्थिर तारे भी पृथ्वी के लोगों को पश्चिम की ओर चलते हुए दिखाई देते हैं।

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गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट के योगदान 


शून्य की उत्पत्ति

आर्यभट्ट ने संख्याओं को आगे बढ़ाने तथा एक पूर्ण गणना करने के लिए दशमलव का उपयोग किया। इसी दशमलव को उन्होंने शून्य कहा। 

अन्य संख्याओं के बराबर आकार देने के लिए उन्होंने इसकी आकृति बदलकर एक वृत्त की तरह बना दिया। वर्तमान समय का शून्य आर्यभट्ट की ही देन है जो उनके समय से ही चलता हुआ आ रहा है।

पाई का मान

आर्यभट्ट ने आर्यभटीय के दूसरे अध्याय के दसवें छंद में पाई का मान बताया है। उन्होंने इसके लिए सबसे पहले एक वृत्त के व्यास का निश्चित मान रखा। यह व्यास उन्होंने 20,000 रखा था। 

इसमें बताया गया है कि 100 में चार जोड़कर उसे 8 से गुणा कर दीजिए तथा प्राप्त हुए परिणाम में एक बार फिर 62,000 जोड़ दीजिए। जो अंतिम परिणाम आया है उसे वृत्त के व्यास से विभाजित कर दीजिए। 

आपके पास प्राप्त हुआ परिणाम ही पाई का मान है और यह मान 3.1416 आता है जो वर्तमान समय की पाई के मान के 3 दशमलव तक सत्य है।


उन्होंने इसकी गणना भी अपने ग्रंथ में करके दिखाई है।


कुछ गणितज्ञ मानते हैं कि उन्होंने पाई को अपरिमेय संख्या बताया था। परंतु उन्हें इस तथ्य का श्रेय नहीं मिला क्योंकि उनके ग्रंथ में इसका कहीं भी सबूत नहीं है। 1761 में लैंबर्ट ने पाई को अपरिमेय संख्या बताया था जिसकी वजह से उसे इस तथ्य का श्रेय मिला।

आज से हजार-बारह सौ वर्ष पहले उनके ग्रंथ को अन्य भाषाओं में अनुवादित किया गया। तो अनुवादित पुस्तकों में पाई को अपरिमेय संख्या लिखा गया जिससे पता चलता है कि संभवतः आर्यभट्ट ने पाई को अपरिमेय संख्या लिखा था।




बीजगणित व समीकरणें

आर्यभट्ट ने संख्याओं के वर्ग व घन की श्रेणी के लिए भी सूत्रों का प्रतिपादन किया। 

प्राचीन भारत के गणितज्ञ हमेशा ही समीकरणों के अनिश्चित चरों का मान निकालने में बहुत ही रुचिकर रहे हैं। आर्यभट्ट ने चरों वाली साधारण समीकरणों का हल निकालने के लिए कुटुक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। यह सिद्धांत बाद में मानक सिद्धांत बन गया।


उस समय में उन्होंने इस कुटुक सिद्धांत से ax+by=c जैसी समीकरणों का हल प्राप्त किया। 


आर्यभट्ट ने ही सर्वप्रथम त्रिकोणमिति के ज्या (sine) तथा कोज्या (cosine) फलनों की रचना की थी। जब उनके ग्रंथ का अरब भाषा में अनुवाद किया गया था तब अनुवादक ने इन शब्दों को जैया (Jaiya) तथा कौज्या (Kojaiya) बदल दिया। और जब उन्हीं अरब किताबों को लेटिन भाषा में अनुवादित किया गया तो इनको स्थानिक शब्दों साइन व कोसाइन से प्रदर्शित किया। जिसे पता चलता है कि साइन व कोसाइन की रचना आर्यभट्ट ने ही की थी।

खगोल विज्ञान में आर्यभट्ट के योगदान 

ग्रहों की गति

आर्यभट्ट ने यह परिकल्पना की कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है और वह हमेशा ही इसी बात पर अड़े रहे। उन्होंने समझाया कि जिस तरह एक चलती हुई नाव में बैठे हुए व्यक्ति को लगता है कि पेड़ पौधे व स्थिर चीजें उसकी गति की विपरीत दिशा यानी किनारे की ओर जा रही हैं उसी तरह पृथ्वी के लोगों को तारे चलते हुए दिखाई देते हैं। 

परंतु तारे स्थिर हैं तथा पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती है  जिसकी वजह से तारे पश्चिम की ओर जाते हुए दिखाई देते हैं।


उन्होंने बताया कि सूर्य, चंद्रमा सभी पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। यह दो ग्रहचक्कर में गति करते हैं जिसे मंद और तेज कहा गया था। उन्होंने सभी ग्रहों को पृथ्वी से दूरी के आधार पर व्यवस्थित किया, जिसका क्रम यह है – चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि व तारे।

सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण

सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने ही सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के बारे में बताया था। 

जब पृथ्वी और सूर्य के बीच में चंद्रमा आ जाता है तो चंद्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ने लगती है जिसे सूर्यग्रहण कहते हैं।

इसी तरह जब सूर्य व चंद्रमा के बीच में पृथ्वी आ जाती है तब पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ने लगती है जिसे चंद्रग्रहण कहते हैं। 


उन्होंने इन सिद्धांतों को राहु-केतु की मदद से समझाया। उन्होंने पृथ्वी के आकार की गणना करके ग्रहण के वक्त बनी छाया का मापन भी किया जिससे पता चलता है कि वह बहुत ही बुद्धिमान इंसान थे।

दिन-रात व वर्ष का होना 

आर्यभट्ट ने बताया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती है जिसमें उसे 23 घंटे 56 मिनट 4.1 सेकंड का समय लगता है। वर्तमान वैज्ञानिकों के अनुसार यह समय 23 घंटे 56 मिनट 4.09 एक सेकंड है जिससे पता चलता है कि आर्यभट्ट की गणना में मात्र 0.01 सेकेंड का अंतर था।

 उन्होंने यह भी बताया कि पृथ्वी को एक चक्कर तारों के चारों तरफ पूरा करने में 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट तथा 30 सेकंड लगते हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार इस समय में मात्र 3 मिनट की ही त्रुटि है तथा यह मात्र 3 मिनट ही ज्यादा है।

आर्यभट्ट की मृत्यु

आर्यभट्ट की मृत्यु 550 ईस्वी को हुई थी। उनका मृत्यु स्थान संभवतः पाटलिपुत्र ही था जहां पर उन्होंने शिक्षा ग्रहण की तथा अन्य खोज कार्य किए थे। 

उनके गणित व खगोल विज्ञान में अभूतपूर्व तथा अद्वितीय खोज ने उन्हें बहुत प्रसिद्ध वैज्ञानिक बना दिया। वो आज भी भारतीय युवाओं व वैज्ञानिकों में आदर्शवादी गणितज्ञ तथा वैज्ञानिक है।

आर्यभट्ट की प्रतिष्ठा में किए गए कार्य 

भारत सरकार ने आर्यभट्ट की प्रतिष्ठा में अपनी पहली सेटेलाइट का नाम आर्यभट्ट रखा था जो 1975 में लांच की गई थी।  उनकी प्रतिष्ठा में बिहार सरकार ने आर्यभट्टा नॉलेज यूनिवर्सिटी की भी स्थापना की जो वहीं पटना से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। चांद की पूर्वी दिशा की ओर उपस्थित गड्डों को आर्यभट्ट का नाम दिया गया।




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